Wednesday 18 December 2013

झोंपड़ा

       रात के ग्यारह बजे तक अगल बगल की सारी इमारतों की बत्तियां बुझ जाती थी पर उस झोंपड़े में लगा बल्ब , सड़क पर हल्की-हलकी रोशनी बिखेरता, नहीं नहीं ! इतना भी नहीं कि रास्ते पर गर्दन झुकाये खड़ी, गली की बत्ती शर्म से पानी-पानी जाए ! पर हाँ इतनी ज़रूर कि वो सड़क मंद मंद मुस्कुराने लग जाए ।लगता था उस रोशनी और सड़क की खूब बनती होगी ,रात की खामोशी दोनों मिलकर चुपचाप काट लेते। शायद रात भर कोई काम करता होगा उस  झोंपड़े में ,जो सारी रात     बत्ती जली ही रहती । 
       सुबह सुबह उस झोंपड़े से घुटनों के बल रेंगता वो नन्हा दिख जाता और सड़क पर धूप सेंकते पिल्ले के कान खींचता। 
ऐसा लगता  दोनों ही एक-दूसरे का मज़ाक उड़ा रहे हो। पेट पालने के लिए उसके माँ-बाप ,मूर्ति बना बेचते हैं । सिकुड़ा सा पेट और  मुरझाया सा चेहरा ,गरीबी की सिलवटें माथे पर ही दिख जाती हैं। 
        सड़क की और इमारतों की बत्तियों  की ज़यादा बनती नहीं , रोशनी तो दे देती हैं वो पर अपनेपन की गर्माहट? शायद वो  उसके लिए बहुत दूर हैं ! वैसे भी जो रात के कालेपन में उजाला न दिखाए, उसके साथ दोस्ती गहराए कैसे? तहज़ीब की कोई  कमी नहीं उन बत्तियों में , बस औपचारिकता है नाम की ! और झोंपड़े का एक बल्ब , ज्यादा तो नहीं बस एक कटोरी गर्मी और  उजाला दे देता है जिसके सहारे सड़क चिलचिलाती ठंड सह जाता है ।  
        कुछ दिनों से उस झोंपड़े का कोई अता-पता नहीं, जान पड़ता है कि सरकारी कर्मचारियों ने उसे हटवा दिया है, इसी  शिकायत पर की "हमारे घर की शोभा जा रही इस झोंपड़े के कारण "। 
 शिव-गणेश भगवान् की टूटी मूर्तियां दिखायी पड़ती है उस जगह। जानबूझ कर ही तोड़ी होगी बच्चे के बाप ने , एक तो गरीबी  और अब बेघर भी ! भगवान् पर से विश्वास जाता रहा होगा उसका । पिल्ले की हालत भी अजीब ही है, न कोई कान खींचने  को, न ही कोई मज़ाक उड़ाने को ! 
       आज गली की बत्ती गर्दन शर्म से झुकाये खड़ी है क्योंकि सड़क का वो हिस्सा उस से परे है ,जो कभी झोंपड़े के बल्ब से रोशन होता था।और वो सड़क ? 
   सड़क बस तरसता रहता है , बस एक कटोरी भर गर्मी और उजाले को !

Friday 29 November 2013

व्यर्थ


  "कलमुँही, पता नहीं किस घडी में पैदा हुई टेढ़े पैर लेकर , मर क्यूँ नहीं गयी?न जाने क्या पाप किया कि इतनी बदसूरत बेटी मिली मुझे?" और वो सिसक कर सब सुनती रहती। किसीको उसके होने कि ख़ुशी नहीं थी। माँ बाप पे हर कोई ताने कसता कि "हुई भी बेटी और वो भी अपंग और बदसूरत ?"। उसे सब लोग घृणा से "कल्लो" बुलाते, काली जो थी और हर बार जब उसे बुलाया जाता तो ये एहसास और गहराता जाता कि वो कितनी बदसूरत थी।  नफरत हो गयी थी उसे खुद से, और इसका एक ही उपाय था।
दौड़ !!!
     दौड़ खुद से दूर की।एक दौड़ जिसमे वो खुद कि बदसूरती और वो टेढ़े पैर भूल जाए । एक दौड़ जिसकी तेज़ी बस ये दिखाती कि उसका होना कितना बेकार है।
       आज वो बित्ते भर कि लड़की "कल्लो" नहीं "इच्छा" है। लोग पहचान भी नहीं पाते उसे, इतना कायाकल्प हो चुका। पैर भी टेढ़े नहीं रहे। बहुत जानी-पहचानी हस्ती हो गयी है ,शायद सब उस दौड़ का कमाल था । क्या नहीं था उसके पास ? जिसकी कल्पना नहीं थी वैसी ज़िन्दगी जी रही थी वह !
       पर एक आवाज़ सर में अब भी गूंजती "कल्लो ","टेढ़े पैर वाली "… उठकर आईना देखती और महसूस करती कि उसे आईने में "कल्लो " ही दिखती। अपनी पुरानी पहचान से नफरत करती इसलिए तो नाम बदल दिया पर "कल्लो " आज भी उसका पीछा नहीं छोड़ती और वो देखती हर बार वो सर कि आवाज़ एक साया का रूप ले लेती और ज़ोर ज़ोर से चिल्ला के "कल्लो","टेढ़े पैर वाली " कह  ठहाके लगाती  और जब फर्श पर गिरकर "कल्लो " से जब वो "इच्छा " बन जाती तब वो साया कहता " वाह!इतनी सुन्दर और इतनी खूबसूरत "… इच्छा  अहंकार से भर जाती कि वो अब बहुत जानी मानी खूबसूरत अभिनेत्री है।
अब साया हमेशा उसके ही साथ रहता ,हर वक़्त ! और ये "खूबसूरत अभिनेत्री" कल्लो और इच्छा वाली पहचान के बीच झूलती रहती। साया उसे पागल बना रहा था! रोज़ रोज़ और करीब करीब हर घंटे उसे ऐसे दौरे पड़ने लगे जब वो कुछ पल खुद से बेइंतहा नफरत करती और फिर कुछ पल बाद अपने पर गुमान करती ! संतुलन संतुलन खोने लग गया था उसका !अब वो नहीं जानती थी कि वो थी कौन?
 कल्लो या इच्छा ?
    घडी की आवाज़ उस अस्पातल के सन्नाटे को चीर रही थी और इच्छा बिस्तर पर बेसुध पड़ी थी । पूरा शरीर झुलसा हुआ और घुटनों के नीचे से पैर कटे हुए ! मालूम होता है कि उसने कुल्हाड़ी से खुद के पैर काटे और पूरे घर को आग लगा दी। लोग हैरान थे  कि कोई भला अपने ही साथ ऐसा क्यूँ करेगा ? पर सिर्फ इच्छा जानती थी कि उसने ऐसा क्यूँ किया ?
   ताकि वो उस साये को बता सके कि अब वो टेढ़े पैर वाली नहीं थी और न ही बदसूरत ! क्यूंकि अब न उसके पास कोई  चेहरा था और न ही पैर.. कर क्या लेता साया?
पर साया अब भी दरवाज़े पर खड़ा था और हंस रहा था इच्छा पर और इच्छा अपनी बेचारगी और लाचारी का अनुभव कर रही थी। सोच रही थी की "ये बस एक साया ही तो था, एक अस्तित्व हीन साया ! कितना ज़रूरी था उसको गम्भीरता से लेना ?कि सारी ज़िन्दगी उस साये से लड़ने में ही ख़त्म  हो गयी " और कनखियों से आंसू रिसने लगे और आंसू के नमक से उसका जला चेहरा और जलन करने लगा, घुटनों के नीचे का खालीपन और टीस करने लगा । पहली बार उसने खुद को देखा बिना किसी साये के हस्तक्षेप के!
     सांसें तेज़ हुई , डॉक्टर साहब आये ,कुछ देर कि कोशिशों के बाद उन्होंने भी अपने हाथ बाँध लिए ! इतना रक्तस्त्राव होने के बाद इच्छा का बचना संभव ही कहाँ था?
 

      साया अब भी दरवाज़े पर खड़ा था!किसी और मासूम को ढूंढ़ने की फिराक में ,जिसे उस साये कि व्यर्थता का बोध न हो!




Tuesday 29 October 2013

विराग

सुने-सुनाये रागों से अलग
एक विराग दूर ही जलता है 
खामोश सा ही 
पर कितना मासूम जैसे 
 नन्ही गोरी कलाइयों में 
लाल चूड़ियों  बजने का 
चुपचाप शोर 

मुट्ठियाँ भरी उसकी नहीं
पर उस खालीपन में जीने का
एहसास लगता है 
और एक विराग सा जलता है 
आज़ादी जैसे  स्कूल से छुट्टी  हो गयी है 
मुट्ठी भर आसमान उड़ने को बहुत लगता है
लगता है सारे कसे तार टूट गए हैं
और  विराग सा जलता है

कल- बीता हुआ बहुत सुहाना लगता है
कल-आने वाला अंजाना डरावना सा लगता है
कल-कल की दौड़ में तलवे फटने लगे हैं
दो कानों के बीच के शोर में
कैसे सुनाई दे अपनी ही आवाज़ ?
वक़्त अब बड़ा बेरहम सा लगता है
भीड़ से जुड़े हुए, भीड़ में जड़े हुए
एक विराग मन में ही जलता है

जी करता है ,इस बेहोशी में
रुककर कुछ पल पूछूं
क्यों इतना छलावा? किसलिए इतनी दौड़?
सारी आँखें यही कहती जान पड़ती है
इस झूठ के झरीदार पहनावे का बोझ
मेरे कंधे न सम्भाल सकेंगे
जान-पहचान में  भी अब अजनबी लगता है
हाँ,एक विराग का दिया मेरे साथ-साथ ही चलता है.

Thursday 20 June 2013

ऐसा ही हो

अगर तुम कहो
ज़मीन से उठाकर एक पत्थर
अगर फेंको आसमान की ओर
तो वो गिरेगा चाँद पर
तो मैं कहूँगी  ठीक है
क्योंकि ज़मीन से उठाकर फेंको पत्थर
और वो गिरे बस फलांग भर दूर
मैं नहीं जानती कि
ऐसा ही हो

अगर तुम कहो
हूँ मैं बदगुमान कि
सही गलत की जानकारी नहीं
तो मैं कहूँगी ठीक है
जानना और जानकारी का फर्क जानती हूँ
पर सही-गलत को जानकर
समझदार नहीं बन सकती
कि मैं नहीं जानती कि
ऐसा ही हो

अगर तुम कहो
कि दुनिया बहुत बेरंग लगती है
कोई रंग खरा नहीं
तो मैं कहूँगी ठीक है
कि  दुनिया रंगों की दास्ताँ है
मैं नहीं जानती कि
ऐसा ही हो

अगर तुम कहो
रास्ते पर सोने वालों को
आसमान के सपने देखने का हक नहीं
तो मैं कहूँगी ठीक है
कि बादल महल और झोंपड़ी में फर्क कर आते हैं
मैं नहीं जानती
ऐसा ही हो

अगर तुम कहो
ज़िन्दगी टूट टूटकर
पुराने सांचे में ढल जाती है
तो मैं कहूँगी ठीक है
कि टूटकर आदमी नया सा बनता है
मैं नहीं जानती
ऐसा ही हो 

अनकही

अनकही ,
वो जो कभी कही नहीं गयी
या फिर कही,
मगर सुनी नहीं गयी
या फिर वो जो कही पर
सही गलत के पर्दों में फंसकर रह गयी
या वो जो
कहे न कहे की उलझन में बंधकर रह गयी

जब बातें होठों पर आकर दम तोड़ देती हैं
तो हम गर्दन झुकाए ,टूटी बातों की बेजान लाशों को
एक हाथ से खींच,बेमन से
उसी कब्रिस्तान  में ले जाते हैं
जहाँ नजाने और कितनी बातें दफ़न हैं
बातें कुछ, जो अनकही रह गयी
बातें कुछ,जो आँखों में कोहरा बनकर रह गई

पूरे चाँद की रातों में
कभी इन बातों की रूह
मेरे दरवाज़े पर दस्तक दे जाती है
समझ नहीं आता की कब्रिस्तान में बसें है
या घर ही कब्रिस्तान बन गया है
लाशों में रहते तो उनके ख़त्म होने का एहसास होता
पर रूहों के साथ?
उनकी रूहों के साथ लगता है कि
वो आज भी जिंदा हैं
कि हमेशा से यहीं थी
रूहें कुछ, जिनकी ज़मीन से फलक की उड़ान अधूरी रह गई
रूहें कुछ, जो खुश कभी  खुश्क-बेजान सी रह गई

खिड़की के कोने पर
एक पौधा लगाया है कि
सहम जातें हैं गर बगीचे पर
पतझड़ का साया पड़े
तो फिर कहीं कब्रिस्तान की ओर रुख न हो
एक पत्ते को झाड़ता देख चोट नहीं पहुँचती
 कि एक पत्ते पर कभी घोंसले नहीं बने
घोंसले कुछ ,जिनकी ठंड में रौनक जमकर रह गयी
घोंसले कुछ, जिनमे पखियों के आने की बस आस रह गयी

रूहों से बात करते भूल जातें है
की पौधे को पानी देना बाकी रह गया
जानने लगें है की
कब्रिस्तान में आंसू बहाने से बेहतर
पौधे को उसी से सींचो तो
कुछों के घोंसले बन जायेंगे
घोंसले कुछ, जो नयी जिंदगियों की बाट  जोहेंगे
घोंसले कुछ , जिनकी कगार पर खड़े वो नन्हे उड़ान भरेंगे

आँखों में मायूसी की एक भी लहर नहीं
कि हर अनकही को अपना हिस्सा बनाया है
कि रूहों का शोर
अब बस खुसुर-फुसुर लगता है
और सूरज की किरणों से
पत्ते सोने से लगते हैं
समझते हैं की,कुछ बातों के जाने से
कुछ नयी बातों के आने के रास्ते बनेंगे
रास्ते कुछ ,जिनसे और रास्ते बनते जायेंगे
रास्ते कुछ ,जिनके ही वास्ते हम चलते जायेंगे .

दरवाज़ा

वक़्त की बूंदों से भीगता दरवाज़ा
रुठन की ठंड से इतना फूलता कि
बंद करने में दिक्कत होती

किस तरह बंद करें इस किवाड़ को
की वो तूफ़ान का झोंका इसे छू  भी न पाए
या दरवाज़े से तूफ़ान को रोकना
महज़ एक बचपना है

रोयें या अफ़सोस मनाएं की
कितनी गुमसुम बातों ने इस
बंद दरवाज़े के बाहर ठिठककर
अपना रास्ता मोड़ दिया

इतना सख्त दरवाज़ा की
खटखटाने की आवाज़ भी सुनाई नहीं पड़ती
की तूफानों को रोकने के डर से
खिलखिलाती हंसी को भी बाहर  छोड़  आये

तारों की टिमटिमाती रोशनी के लिए
आँखें तरस गयी थी
चिड़ियों का चहचहाना
अजनबी बन गया
बादलों की पकड़ा पकड़ी देखे
 अरसे हो गए

क्यों नहीं समझे की थोड़ी सी धूप  रूह को जलाएगी नहीं
और थोड़ी बारिश छिपी दरारों को
भर ही देगी
क्यों नहीं दिखता की
तूफ़ान  सिर्फ एक बेबस बवंडर था जो
हर बंद दरवाज़े पर लात मारकर उसे डराना चाहता था
और ये की उस बेबस बवंडर को तूफानों से डर लगता था
और ये की
तूफ़ान बस एक तू था जो उफान पर था
की अगर तूफ़ान को अगर
बैठा कर कुर्सी पर कहते
"आओ दर्द की करें बातें"
तो उस तूफ़ान का मुखौटा टूटकर गिर जाता
और देखते की
तूफ़ान इतना भी डरावना नहीं था
की तूफ़ान बस एक चोट खाया खुशबू का झोंका था

दरवाज़ा खोल करते महक को महसूस चेहरे पर
तो अब हम सोचें की
"क्या सच में दरवाजों की ज़रुरत थी?"

Monday 22 April 2013

पागल कौन ?





रास्ते के कोने, एक गटर में पड़ा था 
वो अजीब सा जानवर 
लोग दूर भागते पर फिर भी 
देखते उसे नज़रें फेर-फेर कर 

झाँक कर देखा तो 
नहीं नहीं! वो तो इंसान ही था 
मैला कुचला थोडा गन्दा सा 
कुछ पहचाना कुछ अनजान सा था 

रूखी मिटटी में सने बाल 
टूटी कटी चप्पल उसका हाल बता रही थी 
अकेले में बात कर रहा ऐसे 
मानो ,पूरी पलटन उसके साथ जा रही थी 

लोग पत्थर फ़ेंक मारते उसे 
की वो इस भीड़ से अलग था 
और मैं ये पूछती की 
क्या वो सच में इस भीड़ से अलग था ?

फर्क था कितना दोनों में?
लोगों के मन में जो पैना शोर था 
वो बस बाहर दिखा रहा था 
लोग मन ही मन नफरत करते अपने आप से 
वो अपनी नफरत बाहर दिखा रहा था 

अगर बाल नोचना और चिल्लाकर हँसना सभ्य होता तो 
क्या लोग नहीं करते ये सब?
वो परे था खोखली सभ्यता की दीवारों के 
इसलिए खुले मन से करता सब 

सभ्यता की परिभाषा क्या थी?
ये की उस ठेठ प्रतिशोध पर स्नेह का ठप्पा लगा दो?
या फिर उस दिमागी बडबड पर बाहर की चुप्पी का ताला लगा दो ?
या फिर उस भावनाओं के जाहिलपन पर शिष्टता  की चादर ओढ़ लो ?
या फिर अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए किसी के सपनों को ही तोड़ दो?
या फिर उस दबे बैरभाव पर मुस्कान की तस्वीर चिपका दो?
या फिर सिर्फ एक मदद के लिए,उसके माथे पर एहसान की रसीद चिपका दो?
या फिर अपने अहम् को साबित करने,सब पर सही-गलत की चिप्पी लगा दो?
या फिर सब कुछ पाने की सनक में,अपनों के प्यार की भी कीमत लगा दो?

लोग हंसते उसपर पागल-पागल कहकर 
और मैं ये सोचती की,असली में पागल कौन था?
अफ़सोस होता था पहले कि वो इस भीड़ का नहीं 
पर अब 
शुक्रगुज़ार थी की वो इस भीड़ का नहीं था ।


सुलझन

      बालकनी में खड़ी  मैं देख रही थी  सुनसान सड़क को ,रात के अँधेरे में भी जैसे कुछ  हिस्सा उजला था । काले बादलों से भरा आसमान जैसे मेरी मन:स्थिति बता रहा था ।हर एक चीज़ से खुद को जोड़ मतलब ढूँढ रही   थी ज़िन्दगी का ,पर कुछ प्रयास विफल होने के लिए ही बने होते हैं ।
   अपनी ही सोच के भंवर में फंसती चली जा रही थी कि किसी के पैरों की आवाज़ ने बाहर खींच निकाला मुझे। कोई न थ आस पास ,हैरान थी की कहाँ से आ रही थी आवाज़ । सड़क पर देखा तो एक जानी-पहचानी सी आकृति दिखाई दी ,पल भर को  रुक कर उसने मेरी ओर  देखा और मैं भीतर तक कंपकंपा  गयी । डरावना था उसका चेहरा और निशान  से भरा! पर खुद को मैं रोक नहीं पा रही थी ,रह रहकर मन कह रहा था की मैं उसको अच्छे से जानती थी ।लग रहा था की उसे रोककर पूछूँ की वो है कौन ?उत्सुकतावश  मैं  दरवाज़ा खोल दौड़ पड़ी सड़क की ओर। खुद को बटोर चिल्लाती ,ताकि वो मुड़कर रुक जाए ,पर वो रुकना ही नहीं चाहती थी। अनसुना कर मेरी आवाज़ को ,वो बढती ही जा रही थी ।
     जब उसके करीब पहुंची तो हिम्मत जुटाकर उसके कंधे पर  हाथ रखा,वो मुड़ी और मैंने देखा की उसका चेहरा मैला हो गया था ,निशान पड़  गए थे  जैसे बरसों से पहना कोई  मुखौटा उतारा हो ,आँखें मुरझाई सी,चेहरे पर अकेलेपन का भाव । अब वो मुझे डरावनी नहीं,बल्कि दयनीय लग रही थी ।पूछा उससे की "कौन हो तुम,क्या मैं जानती हूँ तुम्हे ?" उसने मेरी आँखों  में झांककर देखा  और मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी !!!
क्या वो मैं थी? क्या सच में?
   वो बोली "मुखौटा पहनते -पहनते असली चेहरा खो चुकी हूँ ,निशान अभी  भी बाकी हैं !!अब "खुद" होने में दिक्कत होती है !अब वापिस लौटना मुश्किल है " ,।मैं स्तब्ध खड़ी रह गयी और उसकी आंसू भरी आँखों को तब तक देखती रही जब तक वो आगे बढ़ते बढ़ते अँधेरे में समां न  गई ।
   अचानक होश टूटा तो देखा मैं अभी भी बालकनी में थी ,पर इस बार "मैं" थी। सड़क पर देखा तो एक लड़की मुस्कुराती लौटती हुई दिखाई दी ,मैं मुस्कुरा दी ,जान गई थी कि
          "खुद के पास होना ज़रूरी है!!
            अपने आप को स्वीकार करना ज़रूरी है!!
            सही मायने में जीना ज़रूरी है!! "

आसमान साफ़ हो चुका  था और हर जगह रोशनी   ही रोशनी थी।








Sunday 21 April 2013

लहरें



पहले  नाराज़ थी
फिर खुश
अब हल्का सा गुस्साई सी हूँ
सवालों की झड़ी लग जाती है
ज़िन्दगी एक जैसी क्यूँ  नहीं रहती?
क्यूँ हर बार उलझकर रह जाती है?

जब उस समंदर वाली रेत में
हलके हलके पांव धंसते
और जब हर लहर गले मिलकर अलविदा कहती तो सोचती
मेरी भावनाओं की गाज़ उन लहरों जैसी ही तो थी
गडगडाती दो पल को
फिर तेज़ बारिश
फिर वो पीली वाली धूप

कितना ज़रूरी था हर उस लहर को नाम देना?
क्यों ज़रूरी था उस हर लहर को नाम देना ?
क्या किनारे बैठे उन लहरों को बस देखना काफी नहीं?
या फिर बिना सोचे उन लहरों के साथ बह जाना ही
क्यूँ हर लहर को सही गलत से सीमांकित करना  ?

क्यों अपने आप को
या फिर किसी और ही को
उस  हर तरंग से सीमित करना ?
क्यूँ ये नहीं समझना की
लोग "क्रोध" नहीं हैं !
लोग "द्वेष " नहीं हैं !
लोग "अहंकार" भी नहीं हैं !
क्यों नहीं समझना की
लोग लहरें नहीं
अथाह महासागर हैं
और
महासागर की पहचान लहरों से नहीं होती

क्यों अपने "मैं" के ऐनक से देख
उस हर महासागर को एक छिछला पोखर बना देना?

क्यों "मैं" इतना ज़रूरी था?
क्या सिर्फ होना ही काफी नहीं ?