अपनी ही सोच के भंवर में फंसती चली जा रही थी कि किसी के पैरों की आवाज़ ने बाहर खींच निकाला मुझे। कोई न थ आस पास ,हैरान थी की कहाँ से आ रही थी आवाज़ । सड़क पर देखा तो एक जानी-पहचानी सी आकृति दिखाई दी ,पल भर को रुक कर उसने मेरी ओर देखा और मैं भीतर तक कंपकंपा गयी । डरावना था उसका चेहरा और निशान से भरा! पर खुद को मैं रोक नहीं पा रही थी ,रह रहकर मन कह रहा था की मैं उसको अच्छे से जानती थी ।लग रहा था की उसे रोककर पूछूँ की वो है कौन ?उत्सुकतावश मैं दरवाज़ा खोल दौड़ पड़ी सड़क की ओर। खुद को बटोर चिल्लाती ,ताकि वो मुड़कर रुक जाए ,पर वो रुकना ही नहीं चाहती थी। अनसुना कर मेरी आवाज़ को ,वो बढती ही जा रही थी ।
जब उसके करीब पहुंची तो हिम्मत जुटाकर उसके कंधे पर हाथ रखा,वो मुड़ी और मैंने देखा की उसका चेहरा मैला हो गया था ,निशान पड़ गए थे जैसे बरसों से पहना कोई मुखौटा उतारा हो ,आँखें मुरझाई सी,चेहरे पर अकेलेपन का भाव । अब वो मुझे डरावनी नहीं,बल्कि दयनीय लग रही थी ।पूछा उससे की "कौन हो तुम,क्या मैं जानती हूँ तुम्हे ?" उसने मेरी आँखों में झांककर देखा और मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी !!!
क्या वो मैं थी? क्या सच में?
वो बोली "मुखौटा पहनते -पहनते असली चेहरा खो चुकी हूँ ,निशान अभी भी बाकी हैं !!अब "खुद" होने में दिक्कत होती है !अब वापिस लौटना मुश्किल है " ,।मैं स्तब्ध खड़ी रह गयी और उसकी आंसू भरी आँखों को तब तक देखती रही जब तक वो आगे बढ़ते बढ़ते अँधेरे में समां न गई ।
अचानक होश टूटा तो देखा मैं अभी भी बालकनी में थी ,पर इस बार "मैं" थी। सड़क पर देखा तो एक लड़की मुस्कुराती लौटती हुई दिखाई दी ,मैं मुस्कुरा दी ,जान गई थी कि
"खुद के पास होना ज़रूरी है!!
अपने आप को स्वीकार करना ज़रूरी है!!
सही मायने में जीना ज़रूरी है!! "
आसमान साफ़ हो चुका था और हर जगह रोशनी ही रोशनी थी।
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