Monday 22 April 2013

पागल कौन ?





रास्ते के कोने, एक गटर में पड़ा था 
वो अजीब सा जानवर 
लोग दूर भागते पर फिर भी 
देखते उसे नज़रें फेर-फेर कर 

झाँक कर देखा तो 
नहीं नहीं! वो तो इंसान ही था 
मैला कुचला थोडा गन्दा सा 
कुछ पहचाना कुछ अनजान सा था 

रूखी मिटटी में सने बाल 
टूटी कटी चप्पल उसका हाल बता रही थी 
अकेले में बात कर रहा ऐसे 
मानो ,पूरी पलटन उसके साथ जा रही थी 

लोग पत्थर फ़ेंक मारते उसे 
की वो इस भीड़ से अलग था 
और मैं ये पूछती की 
क्या वो सच में इस भीड़ से अलग था ?

फर्क था कितना दोनों में?
लोगों के मन में जो पैना शोर था 
वो बस बाहर दिखा रहा था 
लोग मन ही मन नफरत करते अपने आप से 
वो अपनी नफरत बाहर दिखा रहा था 

अगर बाल नोचना और चिल्लाकर हँसना सभ्य होता तो 
क्या लोग नहीं करते ये सब?
वो परे था खोखली सभ्यता की दीवारों के 
इसलिए खुले मन से करता सब 

सभ्यता की परिभाषा क्या थी?
ये की उस ठेठ प्रतिशोध पर स्नेह का ठप्पा लगा दो?
या फिर उस दिमागी बडबड पर बाहर की चुप्पी का ताला लगा दो ?
या फिर उस भावनाओं के जाहिलपन पर शिष्टता  की चादर ओढ़ लो ?
या फिर अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए किसी के सपनों को ही तोड़ दो?
या फिर उस दबे बैरभाव पर मुस्कान की तस्वीर चिपका दो?
या फिर सिर्फ एक मदद के लिए,उसके माथे पर एहसान की रसीद चिपका दो?
या फिर अपने अहम् को साबित करने,सब पर सही-गलत की चिप्पी लगा दो?
या फिर सब कुछ पाने की सनक में,अपनों के प्यार की भी कीमत लगा दो?

लोग हंसते उसपर पागल-पागल कहकर 
और मैं ये सोचती की,असली में पागल कौन था?
अफ़सोस होता था पहले कि वो इस भीड़ का नहीं 
पर अब 
शुक्रगुज़ार थी की वो इस भीड़ का नहीं था ।


सुलझन

      बालकनी में खड़ी  मैं देख रही थी  सुनसान सड़क को ,रात के अँधेरे में भी जैसे कुछ  हिस्सा उजला था । काले बादलों से भरा आसमान जैसे मेरी मन:स्थिति बता रहा था ।हर एक चीज़ से खुद को जोड़ मतलब ढूँढ रही   थी ज़िन्दगी का ,पर कुछ प्रयास विफल होने के लिए ही बने होते हैं ।
   अपनी ही सोच के भंवर में फंसती चली जा रही थी कि किसी के पैरों की आवाज़ ने बाहर खींच निकाला मुझे। कोई न थ आस पास ,हैरान थी की कहाँ से आ रही थी आवाज़ । सड़क पर देखा तो एक जानी-पहचानी सी आकृति दिखाई दी ,पल भर को  रुक कर उसने मेरी ओर  देखा और मैं भीतर तक कंपकंपा  गयी । डरावना था उसका चेहरा और निशान  से भरा! पर खुद को मैं रोक नहीं पा रही थी ,रह रहकर मन कह रहा था की मैं उसको अच्छे से जानती थी ।लग रहा था की उसे रोककर पूछूँ की वो है कौन ?उत्सुकतावश  मैं  दरवाज़ा खोल दौड़ पड़ी सड़क की ओर। खुद को बटोर चिल्लाती ,ताकि वो मुड़कर रुक जाए ,पर वो रुकना ही नहीं चाहती थी। अनसुना कर मेरी आवाज़ को ,वो बढती ही जा रही थी ।
     जब उसके करीब पहुंची तो हिम्मत जुटाकर उसके कंधे पर  हाथ रखा,वो मुड़ी और मैंने देखा की उसका चेहरा मैला हो गया था ,निशान पड़  गए थे  जैसे बरसों से पहना कोई  मुखौटा उतारा हो ,आँखें मुरझाई सी,चेहरे पर अकेलेपन का भाव । अब वो मुझे डरावनी नहीं,बल्कि दयनीय लग रही थी ।पूछा उससे की "कौन हो तुम,क्या मैं जानती हूँ तुम्हे ?" उसने मेरी आँखों  में झांककर देखा  और मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी !!!
क्या वो मैं थी? क्या सच में?
   वो बोली "मुखौटा पहनते -पहनते असली चेहरा खो चुकी हूँ ,निशान अभी  भी बाकी हैं !!अब "खुद" होने में दिक्कत होती है !अब वापिस लौटना मुश्किल है " ,।मैं स्तब्ध खड़ी रह गयी और उसकी आंसू भरी आँखों को तब तक देखती रही जब तक वो आगे बढ़ते बढ़ते अँधेरे में समां न  गई ।
   अचानक होश टूटा तो देखा मैं अभी भी बालकनी में थी ,पर इस बार "मैं" थी। सड़क पर देखा तो एक लड़की मुस्कुराती लौटती हुई दिखाई दी ,मैं मुस्कुरा दी ,जान गई थी कि
          "खुद के पास होना ज़रूरी है!!
            अपने आप को स्वीकार करना ज़रूरी है!!
            सही मायने में जीना ज़रूरी है!! "

आसमान साफ़ हो चुका  था और हर जगह रोशनी   ही रोशनी थी।








Sunday 21 April 2013

लहरें



पहले  नाराज़ थी
फिर खुश
अब हल्का सा गुस्साई सी हूँ
सवालों की झड़ी लग जाती है
ज़िन्दगी एक जैसी क्यूँ  नहीं रहती?
क्यूँ हर बार उलझकर रह जाती है?

जब उस समंदर वाली रेत में
हलके हलके पांव धंसते
और जब हर लहर गले मिलकर अलविदा कहती तो सोचती
मेरी भावनाओं की गाज़ उन लहरों जैसी ही तो थी
गडगडाती दो पल को
फिर तेज़ बारिश
फिर वो पीली वाली धूप

कितना ज़रूरी था हर उस लहर को नाम देना?
क्यों ज़रूरी था उस हर लहर को नाम देना ?
क्या किनारे बैठे उन लहरों को बस देखना काफी नहीं?
या फिर बिना सोचे उन लहरों के साथ बह जाना ही
क्यूँ हर लहर को सही गलत से सीमांकित करना  ?

क्यों अपने आप को
या फिर किसी और ही को
उस  हर तरंग से सीमित करना ?
क्यूँ ये नहीं समझना की
लोग "क्रोध" नहीं हैं !
लोग "द्वेष " नहीं हैं !
लोग "अहंकार" भी नहीं हैं !
क्यों नहीं समझना की
लोग लहरें नहीं
अथाह महासागर हैं
और
महासागर की पहचान लहरों से नहीं होती

क्यों अपने "मैं" के ऐनक से देख
उस हर महासागर को एक छिछला पोखर बना देना?

क्यों "मैं" इतना ज़रूरी था?
क्या सिर्फ होना ही काफी नहीं ?