वो अजीब सा जानवर
लोग दूर भागते पर फिर भी
देखते उसे नज़रें फेर-फेर कर
झाँक कर देखा तो
नहीं नहीं! वो तो इंसान ही था
मैला कुचला थोडा गन्दा सा
कुछ पहचाना कुछ अनजान सा था
रूखी मिटटी में सने बाल
टूटी कटी चप्पल उसका हाल बता रही थी
अकेले में बात कर रहा ऐसे
मानो ,पूरी पलटन उसके साथ जा रही थी
लोग पत्थर फ़ेंक मारते उसे
की वो इस भीड़ से अलग था
और मैं ये पूछती की
क्या वो सच में इस भीड़ से अलग था ?
फर्क था कितना दोनों में?
लोगों के मन में जो पैना शोर था
वो बस बाहर दिखा रहा था
लोग मन ही मन नफरत करते अपने आप से
वो अपनी नफरत बाहर दिखा रहा था
अगर बाल नोचना और चिल्लाकर हँसना सभ्य होता तो
क्या लोग नहीं करते ये सब?
वो परे था खोखली सभ्यता की दीवारों के
इसलिए खुले मन से करता सब
सभ्यता की परिभाषा क्या थी?
ये की उस ठेठ प्रतिशोध पर स्नेह का ठप्पा लगा दो?
या फिर उस दिमागी बडबड पर बाहर की चुप्पी का ताला लगा दो ?
या फिर उस भावनाओं के जाहिलपन पर शिष्टता की चादर ओढ़ लो ?
या फिर अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए किसी के सपनों को ही तोड़ दो?
या फिर उस दबे बैरभाव पर मुस्कान की तस्वीर चिपका दो?
या फिर सिर्फ एक मदद के लिए,उसके माथे पर एहसान की रसीद चिपका दो?
या फिर अपने अहम् को साबित करने,सब पर सही-गलत की चिप्पी लगा दो?
या फिर सब कुछ पाने की सनक में,अपनों के प्यार की भी कीमत लगा दो?
लोग हंसते उसपर पागल-पागल कहकर
और मैं ये सोचती की,असली में पागल कौन था?
अफ़सोस होता था पहले कि वो इस भीड़ का नहीं
पर अब
शुक्रगुज़ार थी की वो इस भीड़ का नहीं था ।