Thursday 20 June 2013

दरवाज़ा

वक़्त की बूंदों से भीगता दरवाज़ा
रुठन की ठंड से इतना फूलता कि
बंद करने में दिक्कत होती

किस तरह बंद करें इस किवाड़ को
की वो तूफ़ान का झोंका इसे छू  भी न पाए
या दरवाज़े से तूफ़ान को रोकना
महज़ एक बचपना है

रोयें या अफ़सोस मनाएं की
कितनी गुमसुम बातों ने इस
बंद दरवाज़े के बाहर ठिठककर
अपना रास्ता मोड़ दिया

इतना सख्त दरवाज़ा की
खटखटाने की आवाज़ भी सुनाई नहीं पड़ती
की तूफानों को रोकने के डर से
खिलखिलाती हंसी को भी बाहर  छोड़  आये

तारों की टिमटिमाती रोशनी के लिए
आँखें तरस गयी थी
चिड़ियों का चहचहाना
अजनबी बन गया
बादलों की पकड़ा पकड़ी देखे
 अरसे हो गए

क्यों नहीं समझे की थोड़ी सी धूप  रूह को जलाएगी नहीं
और थोड़ी बारिश छिपी दरारों को
भर ही देगी
क्यों नहीं दिखता की
तूफ़ान  सिर्फ एक बेबस बवंडर था जो
हर बंद दरवाज़े पर लात मारकर उसे डराना चाहता था
और ये की उस बेबस बवंडर को तूफानों से डर लगता था
और ये की
तूफ़ान बस एक तू था जो उफान पर था
की अगर तूफ़ान को अगर
बैठा कर कुर्सी पर कहते
"आओ दर्द की करें बातें"
तो उस तूफ़ान का मुखौटा टूटकर गिर जाता
और देखते की
तूफ़ान इतना भी डरावना नहीं था
की तूफ़ान बस एक चोट खाया खुशबू का झोंका था

दरवाज़ा खोल करते महक को महसूस चेहरे पर
तो अब हम सोचें की
"क्या सच में दरवाजों की ज़रुरत थी?"

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