Wednesday 25 June 2014

कांच का मकान

सड़क के किनारे नंदू जी का कांच का मकान था
हाँ हाँ भई!! दिखने में तो चमकीला और आलीशान था
मेले में कम और इनके घर के अगल- बगल ज़्यादा चहल-पहल है
पड़ोस वाली चाची तो कहती हैं "सच्ची जी ! हमारी गली का तो ये , ताजमहल है "!!

बताये नंदू किसे उसकी मुसीबत कैसी है?
कांच का मकान बनाने के चक्कर में , सामान के साथ-साथ गैस भी तो बेचीं है !!
कांच के मकान में बैठा नंदू , कोयले  के चूल्हे पर रोटी सेंकता है
बाहर निकले घर के किराए की चमक पहनकर
देखिये कैसे लम्बी-लम्बी फेंकता है !

पनवारी कहता है "चोरियां बड़ी हो रही हैं जी गली में आजकल
हमारा तो झोंपड़ा है , पर बचिये! आपका तो है कांच का महल "!!
नंदू जी रात-रात भर घर का पहरा देते हैं
कहीं चोर घर में घुस ये न देख ले
"कांच के महल में रहने वाले चूल्हे पर रोटी सेंकते हैं !"

गर्लफ्रेंड बनाने की बात से ही नंदू जी चकरा जातें  हैं,
घर आएगी तो क्या कहेगी "हे भगवान!! आप चूल्हे पर रोटी बनातें हैं?"
ऑफिस के दोस्तों को घर बुलाने की बात से ही नंदू जी कतरा जातें  हैं
घर आएंगे तो हँसते हुए कहेंगे "अरे वाह! नंदू जी आप तो चूल्हे पर रोटी बनाते हैं?"
गली में क्रिकेट खेलते बच्चों की गेंद देख, नंदू जी घबरा जातें हैं
 कांच टूटे तो लोग क्या कहेंगे "कांच के मकान वाले, चूल्हे पर रोटी बनाते हैं?"

आप कहते हैं "ले ही लीजिये न  फिर तो गैस कनेक्शन "!!
जानते भी हैं, गैस कनेक्शन में कितने पैसे जातें हैं?
और आप क्या सोचते हैं, घर की महंगी साफ़-सफाई के लिए
पैसे क्या थाईलैंड से आते हैं?

न चैन की सांस , न सुकून की नींद ले पाते हैं
यही सोच-सोच लोग क्या कहेंगे "कांच के मकान वाले चूल्हे पर रोटी बनाते हैं?"
न अकेले रहते बनता है, न ही लोगों को घर साथ लाने में !!
शानौ-शौकत की होड़  में , पिस गए नंदू जी अनजाने में !

अब रास्ते पर मिलतें तो ,कहते हैं
"बेच ही देंगे अब तो! इतना महंगा घर सम्भालना मुश्किल है
हमे तो लगता है , किराए के घर ही जीने के ज़्यादा काबिल हैं!"
चमकू चाय की दूकान पर नंदू जी से कहता है ,
"नंदू जी!! हम भी आप ही की तरह कांच का मकान बनाने वाले हैं !!"
और नंदू जी आह भरकर हौले से कहते हैं
"बेटा चमकू, तुम्हारे चूल्हे पर रोटी बनाने के दिन आनेवाले हैं "



Wednesday 18 December 2013

झोंपड़ा

       रात के ग्यारह बजे तक अगल बगल की सारी इमारतों की बत्तियां बुझ जाती थी पर उस झोंपड़े में लगा बल्ब , सड़क पर हल्की-हलकी रोशनी बिखेरता, नहीं नहीं ! इतना भी नहीं कि रास्ते पर गर्दन झुकाये खड़ी, गली की बत्ती शर्म से पानी-पानी जाए ! पर हाँ इतनी ज़रूर कि वो सड़क मंद मंद मुस्कुराने लग जाए ।लगता था उस रोशनी और सड़क की खूब बनती होगी ,रात की खामोशी दोनों मिलकर चुपचाप काट लेते। शायद रात भर कोई काम करता होगा उस  झोंपड़े में ,जो सारी रात     बत्ती जली ही रहती । 
       सुबह सुबह उस झोंपड़े से घुटनों के बल रेंगता वो नन्हा दिख जाता और सड़क पर धूप सेंकते पिल्ले के कान खींचता। 
ऐसा लगता  दोनों ही एक-दूसरे का मज़ाक उड़ा रहे हो। पेट पालने के लिए उसके माँ-बाप ,मूर्ति बना बेचते हैं । सिकुड़ा सा पेट और  मुरझाया सा चेहरा ,गरीबी की सिलवटें माथे पर ही दिख जाती हैं। 
        सड़क की और इमारतों की बत्तियों  की ज़यादा बनती नहीं , रोशनी तो दे देती हैं वो पर अपनेपन की गर्माहट? शायद वो  उसके लिए बहुत दूर हैं ! वैसे भी जो रात के कालेपन में उजाला न दिखाए, उसके साथ दोस्ती गहराए कैसे? तहज़ीब की कोई  कमी नहीं उन बत्तियों में , बस औपचारिकता है नाम की ! और झोंपड़े का एक बल्ब , ज्यादा तो नहीं बस एक कटोरी गर्मी और  उजाला दे देता है जिसके सहारे सड़क चिलचिलाती ठंड सह जाता है ।  
        कुछ दिनों से उस झोंपड़े का कोई अता-पता नहीं, जान पड़ता है कि सरकारी कर्मचारियों ने उसे हटवा दिया है, इसी  शिकायत पर की "हमारे घर की शोभा जा रही इस झोंपड़े के कारण "। 
 शिव-गणेश भगवान् की टूटी मूर्तियां दिखायी पड़ती है उस जगह। जानबूझ कर ही तोड़ी होगी बच्चे के बाप ने , एक तो गरीबी  और अब बेघर भी ! भगवान् पर से विश्वास जाता रहा होगा उसका । पिल्ले की हालत भी अजीब ही है, न कोई कान खींचने  को, न ही कोई मज़ाक उड़ाने को ! 
       आज गली की बत्ती गर्दन शर्म से झुकाये खड़ी है क्योंकि सड़क का वो हिस्सा उस से परे है ,जो कभी झोंपड़े के बल्ब से रोशन होता था।और वो सड़क ? 
   सड़क बस तरसता रहता है , बस एक कटोरी भर गर्मी और उजाले को !

Friday 29 November 2013

व्यर्थ


  "कलमुँही, पता नहीं किस घडी में पैदा हुई टेढ़े पैर लेकर , मर क्यूँ नहीं गयी?न जाने क्या पाप किया कि इतनी बदसूरत बेटी मिली मुझे?" और वो सिसक कर सब सुनती रहती। किसीको उसके होने कि ख़ुशी नहीं थी। माँ बाप पे हर कोई ताने कसता कि "हुई भी बेटी और वो भी अपंग और बदसूरत ?"। उसे सब लोग घृणा से "कल्लो" बुलाते, काली जो थी और हर बार जब उसे बुलाया जाता तो ये एहसास और गहराता जाता कि वो कितनी बदसूरत थी।  नफरत हो गयी थी उसे खुद से, और इसका एक ही उपाय था।
दौड़ !!!
     दौड़ खुद से दूर की।एक दौड़ जिसमे वो खुद कि बदसूरती और वो टेढ़े पैर भूल जाए । एक दौड़ जिसकी तेज़ी बस ये दिखाती कि उसका होना कितना बेकार है।
       आज वो बित्ते भर कि लड़की "कल्लो" नहीं "इच्छा" है। लोग पहचान भी नहीं पाते उसे, इतना कायाकल्प हो चुका। पैर भी टेढ़े नहीं रहे। बहुत जानी-पहचानी हस्ती हो गयी है ,शायद सब उस दौड़ का कमाल था । क्या नहीं था उसके पास ? जिसकी कल्पना नहीं थी वैसी ज़िन्दगी जी रही थी वह !
       पर एक आवाज़ सर में अब भी गूंजती "कल्लो ","टेढ़े पैर वाली "… उठकर आईना देखती और महसूस करती कि उसे आईने में "कल्लो " ही दिखती। अपनी पुरानी पहचान से नफरत करती इसलिए तो नाम बदल दिया पर "कल्लो " आज भी उसका पीछा नहीं छोड़ती और वो देखती हर बार वो सर कि आवाज़ एक साया का रूप ले लेती और ज़ोर ज़ोर से चिल्ला के "कल्लो","टेढ़े पैर वाली " कह  ठहाके लगाती  और जब फर्श पर गिरकर "कल्लो " से जब वो "इच्छा " बन जाती तब वो साया कहता " वाह!इतनी सुन्दर और इतनी खूबसूरत "… इच्छा  अहंकार से भर जाती कि वो अब बहुत जानी मानी खूबसूरत अभिनेत्री है।
अब साया हमेशा उसके ही साथ रहता ,हर वक़्त ! और ये "खूबसूरत अभिनेत्री" कल्लो और इच्छा वाली पहचान के बीच झूलती रहती। साया उसे पागल बना रहा था! रोज़ रोज़ और करीब करीब हर घंटे उसे ऐसे दौरे पड़ने लगे जब वो कुछ पल खुद से बेइंतहा नफरत करती और फिर कुछ पल बाद अपने पर गुमान करती ! संतुलन संतुलन खोने लग गया था उसका !अब वो नहीं जानती थी कि वो थी कौन?
 कल्लो या इच्छा ?
    घडी की आवाज़ उस अस्पातल के सन्नाटे को चीर रही थी और इच्छा बिस्तर पर बेसुध पड़ी थी । पूरा शरीर झुलसा हुआ और घुटनों के नीचे से पैर कटे हुए ! मालूम होता है कि उसने कुल्हाड़ी से खुद के पैर काटे और पूरे घर को आग लगा दी। लोग हैरान थे  कि कोई भला अपने ही साथ ऐसा क्यूँ करेगा ? पर सिर्फ इच्छा जानती थी कि उसने ऐसा क्यूँ किया ?
   ताकि वो उस साये को बता सके कि अब वो टेढ़े पैर वाली नहीं थी और न ही बदसूरत ! क्यूंकि अब न उसके पास कोई  चेहरा था और न ही पैर.. कर क्या लेता साया?
पर साया अब भी दरवाज़े पर खड़ा था और हंस रहा था इच्छा पर और इच्छा अपनी बेचारगी और लाचारी का अनुभव कर रही थी। सोच रही थी की "ये बस एक साया ही तो था, एक अस्तित्व हीन साया ! कितना ज़रूरी था उसको गम्भीरता से लेना ?कि सारी ज़िन्दगी उस साये से लड़ने में ही ख़त्म  हो गयी " और कनखियों से आंसू रिसने लगे और आंसू के नमक से उसका जला चेहरा और जलन करने लगा, घुटनों के नीचे का खालीपन और टीस करने लगा । पहली बार उसने खुद को देखा बिना किसी साये के हस्तक्षेप के!
     सांसें तेज़ हुई , डॉक्टर साहब आये ,कुछ देर कि कोशिशों के बाद उन्होंने भी अपने हाथ बाँध लिए ! इतना रक्तस्त्राव होने के बाद इच्छा का बचना संभव ही कहाँ था?
 

      साया अब भी दरवाज़े पर खड़ा था!किसी और मासूम को ढूंढ़ने की फिराक में ,जिसे उस साये कि व्यर्थता का बोध न हो!




Tuesday 29 October 2013

विराग

सुने-सुनाये रागों से अलग
एक विराग दूर ही जलता है 
खामोश सा ही 
पर कितना मासूम जैसे 
 नन्ही गोरी कलाइयों में 
लाल चूड़ियों  बजने का 
चुपचाप शोर 

मुट्ठियाँ भरी उसकी नहीं
पर उस खालीपन में जीने का
एहसास लगता है 
और एक विराग सा जलता है 
आज़ादी जैसे  स्कूल से छुट्टी  हो गयी है 
मुट्ठी भर आसमान उड़ने को बहुत लगता है
लगता है सारे कसे तार टूट गए हैं
और  विराग सा जलता है

कल- बीता हुआ बहुत सुहाना लगता है
कल-आने वाला अंजाना डरावना सा लगता है
कल-कल की दौड़ में तलवे फटने लगे हैं
दो कानों के बीच के शोर में
कैसे सुनाई दे अपनी ही आवाज़ ?
वक़्त अब बड़ा बेरहम सा लगता है
भीड़ से जुड़े हुए, भीड़ में जड़े हुए
एक विराग मन में ही जलता है

जी करता है ,इस बेहोशी में
रुककर कुछ पल पूछूं
क्यों इतना छलावा? किसलिए इतनी दौड़?
सारी आँखें यही कहती जान पड़ती है
इस झूठ के झरीदार पहनावे का बोझ
मेरे कंधे न सम्भाल सकेंगे
जान-पहचान में  भी अब अजनबी लगता है
हाँ,एक विराग का दिया मेरे साथ-साथ ही चलता है.

Thursday 20 June 2013

ऐसा ही हो

अगर तुम कहो
ज़मीन से उठाकर एक पत्थर
अगर फेंको आसमान की ओर
तो वो गिरेगा चाँद पर
तो मैं कहूँगी  ठीक है
क्योंकि ज़मीन से उठाकर फेंको पत्थर
और वो गिरे बस फलांग भर दूर
मैं नहीं जानती कि
ऐसा ही हो

अगर तुम कहो
हूँ मैं बदगुमान कि
सही गलत की जानकारी नहीं
तो मैं कहूँगी ठीक है
जानना और जानकारी का फर्क जानती हूँ
पर सही-गलत को जानकर
समझदार नहीं बन सकती
कि मैं नहीं जानती कि
ऐसा ही हो

अगर तुम कहो
कि दुनिया बहुत बेरंग लगती है
कोई रंग खरा नहीं
तो मैं कहूँगी ठीक है
कि  दुनिया रंगों की दास्ताँ है
मैं नहीं जानती कि
ऐसा ही हो

अगर तुम कहो
रास्ते पर सोने वालों को
आसमान के सपने देखने का हक नहीं
तो मैं कहूँगी ठीक है
कि बादल महल और झोंपड़ी में फर्क कर आते हैं
मैं नहीं जानती
ऐसा ही हो

अगर तुम कहो
ज़िन्दगी टूट टूटकर
पुराने सांचे में ढल जाती है
तो मैं कहूँगी ठीक है
कि टूटकर आदमी नया सा बनता है
मैं नहीं जानती
ऐसा ही हो 

अनकही

अनकही ,
वो जो कभी कही नहीं गयी
या फिर कही,
मगर सुनी नहीं गयी
या फिर वो जो कही पर
सही गलत के पर्दों में फंसकर रह गयी
या वो जो
कहे न कहे की उलझन में बंधकर रह गयी

जब बातें होठों पर आकर दम तोड़ देती हैं
तो हम गर्दन झुकाए ,टूटी बातों की बेजान लाशों को
एक हाथ से खींच,बेमन से
उसी कब्रिस्तान  में ले जाते हैं
जहाँ नजाने और कितनी बातें दफ़न हैं
बातें कुछ, जो अनकही रह गयी
बातें कुछ,जो आँखों में कोहरा बनकर रह गई

पूरे चाँद की रातों में
कभी इन बातों की रूह
मेरे दरवाज़े पर दस्तक दे जाती है
समझ नहीं आता की कब्रिस्तान में बसें है
या घर ही कब्रिस्तान बन गया है
लाशों में रहते तो उनके ख़त्म होने का एहसास होता
पर रूहों के साथ?
उनकी रूहों के साथ लगता है कि
वो आज भी जिंदा हैं
कि हमेशा से यहीं थी
रूहें कुछ, जिनकी ज़मीन से फलक की उड़ान अधूरी रह गई
रूहें कुछ, जो खुश कभी  खुश्क-बेजान सी रह गई

खिड़की के कोने पर
एक पौधा लगाया है कि
सहम जातें हैं गर बगीचे पर
पतझड़ का साया पड़े
तो फिर कहीं कब्रिस्तान की ओर रुख न हो
एक पत्ते को झाड़ता देख चोट नहीं पहुँचती
 कि एक पत्ते पर कभी घोंसले नहीं बने
घोंसले कुछ ,जिनकी ठंड में रौनक जमकर रह गयी
घोंसले कुछ, जिनमे पखियों के आने की बस आस रह गयी

रूहों से बात करते भूल जातें है
की पौधे को पानी देना बाकी रह गया
जानने लगें है की
कब्रिस्तान में आंसू बहाने से बेहतर
पौधे को उसी से सींचो तो
कुछों के घोंसले बन जायेंगे
घोंसले कुछ, जो नयी जिंदगियों की बाट  जोहेंगे
घोंसले कुछ , जिनकी कगार पर खड़े वो नन्हे उड़ान भरेंगे

आँखों में मायूसी की एक भी लहर नहीं
कि हर अनकही को अपना हिस्सा बनाया है
कि रूहों का शोर
अब बस खुसुर-फुसुर लगता है
और सूरज की किरणों से
पत्ते सोने से लगते हैं
समझते हैं की,कुछ बातों के जाने से
कुछ नयी बातों के आने के रास्ते बनेंगे
रास्ते कुछ ,जिनसे और रास्ते बनते जायेंगे
रास्ते कुछ ,जिनके ही वास्ते हम चलते जायेंगे .

दरवाज़ा

वक़्त की बूंदों से भीगता दरवाज़ा
रुठन की ठंड से इतना फूलता कि
बंद करने में दिक्कत होती

किस तरह बंद करें इस किवाड़ को
की वो तूफ़ान का झोंका इसे छू  भी न पाए
या दरवाज़े से तूफ़ान को रोकना
महज़ एक बचपना है

रोयें या अफ़सोस मनाएं की
कितनी गुमसुम बातों ने इस
बंद दरवाज़े के बाहर ठिठककर
अपना रास्ता मोड़ दिया

इतना सख्त दरवाज़ा की
खटखटाने की आवाज़ भी सुनाई नहीं पड़ती
की तूफानों को रोकने के डर से
खिलखिलाती हंसी को भी बाहर  छोड़  आये

तारों की टिमटिमाती रोशनी के लिए
आँखें तरस गयी थी
चिड़ियों का चहचहाना
अजनबी बन गया
बादलों की पकड़ा पकड़ी देखे
 अरसे हो गए

क्यों नहीं समझे की थोड़ी सी धूप  रूह को जलाएगी नहीं
और थोड़ी बारिश छिपी दरारों को
भर ही देगी
क्यों नहीं दिखता की
तूफ़ान  सिर्फ एक बेबस बवंडर था जो
हर बंद दरवाज़े पर लात मारकर उसे डराना चाहता था
और ये की उस बेबस बवंडर को तूफानों से डर लगता था
और ये की
तूफ़ान बस एक तू था जो उफान पर था
की अगर तूफ़ान को अगर
बैठा कर कुर्सी पर कहते
"आओ दर्द की करें बातें"
तो उस तूफ़ान का मुखौटा टूटकर गिर जाता
और देखते की
तूफ़ान इतना भी डरावना नहीं था
की तूफ़ान बस एक चोट खाया खुशबू का झोंका था

दरवाज़ा खोल करते महक को महसूस चेहरे पर
तो अब हम सोचें की
"क्या सच में दरवाजों की ज़रुरत थी?"